आज सारे संसार में अशांति व्याप्त है, चारों ओर हाहाकार मचा है और हर व्यक्ति कुंठा से ग्रस्त है ! मेरा मानना है कि हर व्यक्ति योग को जीवन में अपना ले और गहराई से इसे जान ले तो बहुत हद तक हम अपनी कुंठा से उपर उठ समाज को एकता के सूत्र में बाँध सकते हैं ! योग एक संयम पूर्वक की जाने वाली साधना है और इस साधना को समय लगा कर नियमित करना पड़ता है ! इस साधना के लिए हमें धैर्य से काम लेना पड़ता है ! यह साधना स्वचेतना अर्थात हमारी अपनी चेतना को उस परब्रह्म की चेतना से मिलाती है !
योग साधना के द्वारा हमारा अज्ञान ज्ञान की ओर अग्रसर होने लगता है, हमारी सोच में परिवर्तन होने लगता है, हमारे अंदर दया भाव का स्तर बढ़ने लगता है, हमें अच्छे-बुरे का ज्ञान होने लगता है ! योग में यम-नियम के साथ-साथ मुख्य रूप से आहार को महत्व दिया गया है ! जैसा कहा गया है कि -
" जैसा खाए अन्न वैसा हो जाए मन,
जैसा पिए पानी वैसी हो जाए वाणी "
अर्थात, यदि हम माँसाहारी, बासी भोजन, शराब, गुटका आदि का सेवन करेंगे तो ये सब हमारी साधना में सबसे बड़े बाधक हैं ! अतः हमें शुद्ध शाकाहारी रहना होगा, भूख से कम खाना होगा, हमें अपनी जीभ के चटोरेपन पर लगाम लगाना होगा और काम क्रोध को त्यागना होगा ! हम अपना सारा जीवन भाग दौड़ में लगा देते हैं ! हमारे उपर इच्छायें हावी रहती हैं ! भगवान जिसने हमें बनाया है और जिसमे हमें लीन होना है उसके लिए ही हम समय नहीं निकाल पाते हैं ! ये व्यक्ति और समाज के लिए दुर्भाग्य की बात है ! आत्म्स्थ होने के लिए हम यम-नियम, आसान, प्रत्याहार, धारणा, प्राणायाम, ध्यान आदि को माध्यम बना कर ही समाधि की ओर जा सकते हैं !
यदि हमें आगे बढ़ना है तो विषय एवं वासनाओं के चक्र से निकलना होगा ! हमें अपने जीवन में योग को स्थान देना ही होगा ! खाना-पीना, घूमना-फिरना, वासनाओं में लिप्त रहना क्या यही जीवन का उदेश्य है और यदि इंसान को यही करना है तो फँसे रहो इस माया जाल में और संसार रूपी कीचड़ में, फँसे रहो उन चौरासी लाख योनियों में ! और यदि इन सारी चीज़ों से निकलना चाहते हो तो आज से ही योग को, ध्यान को अपने शरीर का एक अंग समझें और ये संकल्प लें कि योग के द्वारा हम अपने जीवन को सफल बनाएँगे और उस परब्रह्म से मिलेंगे तथा साक्षात्कार करेंगे !